माँ
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सूरज उगता है
पर धूप नहीं दिखती
चाँद निकलता है
पर चांदनी नहीं छिटकती
रात दिन एक सा लगता है
हर उस पल में
जिसमें माँ तू नहीं दिखती
तुम्हारी प्यारी लोरियों में
आज निशा है गुनगुनाती
गालों पर मीठी थपकियां देने
ख़्वाबों में परियाँ तक आ जाती
पर कुछ नहीं भाता
कोई रूप नहीं सुहाता
बस एक बार माँ तू आ जाती
नन्हीं सी काया हूँ
माँ, मैं तेरी छाया हूँ
सिर्फ तेरे स्पर्श को जाना है
उस एक बिन , बाकी बेगाना है
हर रूप को जीना सीखा है
हर धूप जो सहना सीखा है
माँ ! बस तू है , इसके बाहर जहां न दिखा है ।
रोटी
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दादी की हथेलियों की
गरमाहट से
अम्मा के पावों के
आहट से
बाबा के पसीने की
नरमाहट से
पक जाती थी रोटियां
भर जाते थे पेट
अपनी मिट्टी की थी खुशबू
लहलहाते थे जो खेत
आज भी रोटियां
मिलती हैं
अधपकी नहीं मशीनों से
पक कर निकलती हैं
आज भी भर जाते हैं पेट
मगर कोई कोना
खाली रह जाता है
कुछ भूख रह जाती है
इस जिस्म में
और हम असमर्थ हैं
इस ‘रोटी’ को समझने में ।