भाषा भावों को अभिव्यक्त करने का एक माध्यम है।मनुष्य पशुओं से इसलिए श्रेष्ठ है क्योंकि उसके पास अभिव्यक्ति के लिए एक ऐसी भाषा होती है,जिसे लोग समझ सकते हैं। भाषा बौद्धिक क्षमता को अभिव्यक्त करती है। प्रत्येक व्यक्ति,समाज,क्षेत्र,देश की अपनी अलग भाषा होती है, और प्रत्येक देश अपनी भाषा को उन्नत रूप में देखने को आतुर रहता है। ऐसा ही प्रेम हम भारतवासियों को अपनी भाषा ‘हिन्दी’ से है। लेकिन हम अपनी हिन्दी भाषा के साथ सदा न्याय न कर सके, क्योंकि कई बार इस भाषा को कमजोर करने की साजिश की गई, एक बेहद मजबूत भाषा को कई दफा, कई कारणों से दबाया गया। हिन्दी भाषा कैसी-कैसी परिस्थितियों कर और शक्तिशाली भाषा बनी,ये समझने के लिए हमें हिन्दी के इतिहास को थोड़ा जानना होगा, तो आइये पलटते हैं कुछ पिछले पन्नों को —

प्रचीन काल में हमारी भाषा-नीति स्पष्ट थी। बोलियाँ अनेक थीं, किन्तु शिक्षा एवं सरकारी कामकाज के रूप में संस्कृत स्वीकृत थी। पाणिनि एवं पतंजलि जैसे भाषा-वैज्ञानिकों के हाथों में आकर यह इतनी परिमार्जित हो गयी थी कि उच्चतम एवं सूक्ष्मतम विचारों को अभिव्यक्त करने में यह सर्वथा समर्थ थी। कामकाजी भाषा होने के कारण ये अधिक सम्माननीय मानी जाती थी। इसका ‘देववाणी’ नाम इसके सम्मान का सूचक है। कुछ समय बाद बौद्धकाल में अशोक जैसे महान सम्राट के शासन-काल में, भारत की राजभाषा का पद पालि व प्राकृत को मिला। फिर समय बदला मुगलों का शासन आया और कामकाजी भाषा फ़ारसी हुई। यह समय भी अधिक दिन तक न रहा।
एक समय आया, जब समूचा भारत ब्रिटिश राष्ट्रध्वज के नीचे आ गया।अंग्रेजों ने बड़ी चतुराई से भारत को गुलाम तो बनाया ही साथ ही साथ भाषा में भी उन्होंने स्वयं का वर्चस्व यानी अंग्रेजी भाषा की स्थापना कर दी,उन्होंने राजकाज की भाषा अंग्रेजी को बनाया,उधर अंग्रेजी के सौभाग्य से मैकॉले की शिक्षा नीति स्वीकृत हो गई।
तब से लेकर अब तक अंग्रेजी का खूब विस्तार हुआ और होता ही गया। स्वतन्त्रता के बाद हमने लोकतांत्रिक व्यवस्था अपनायी,तब प्रबुद्ध जनों ने ये विचार किया कि जनमानस का राजभाषा के साथ तालमेल नहीं बैठ पा रहा। राजभाषा(अंग्रेजी)पर क्लिष्टता और रूखेपन का आरोप लगाया गया,तब कई भाषाविदों ने कहा की देश में मौलिक हिन्दी में काम किया जाना चाहिए।उन्होंने आर्थिक तथा प्रौद्योगिकी प्रतिस्पर्धा के इस दौर में राजभाषा की भूमिका महत्वपूर्ण बतायी।
फिर क्या था शुरू हो चला हिन्दी भाषा के मान-सम्मान उसके गौरव को स्थापित करने का संघर्ष।
मदन मोहन मालवीय के अथक प्रयासों के बाद हिन्दी का सरकारी दफ्तरों में प्रवेश हुआ, तब भी एक बड़ा समूह अंग्रेजी भाषा के पक्ष में था हलाकि वो हिन्दी के विरोधी भी न थे। उस समय ये संघर्ष कठिन था,हिन्दी को ये सिद्ध करना था कि वो एक सरल,सहज और शब्दों से भरी हुई भाषा है, आधुनिक तकनीकी के शब्द विज्ञान के शब्द,व्यापारिक शब्दावली आदि शब्दों को शब्द देने में और उन्हें परिभाषित करने में हिन्दी सक्षम है, और हिन्दी प्रेमियों का एक बड़ा समूह इस कार्य में जुट गया, और वो बहुत हद तक सफल भी हुए।
ऐसे ही हिन्दी प्रेमियों का संघर्ष चलता रहा और हिन्दी अपना मुकाम पाती गई। फलस्वरूप-
14 सितंबर 1949 को संविधान सभा ने एकमत से हिन्दी को राजभाषा का दर्जा दिए जाने का निर्णय लिया तथा 1950 में संविधान के अनुच्छेद 343 (1) के द्वारा हिन्दी को देवनागरी लिपि में राजभाषा का दर्जा दिया गया।
आधुनिक भारतीय भाषाओं का विकास अपभ्रंशों से हुआ। हिन्दी(खड़ी बोली) इन आधुनिक आर्य-भाषाओं में एक प्रमुख भाषा है। वह शौरसेनी अर्धमागधी अपभ्रंशों से निकली सभी बोलियों में प्रमुख होते हुए 20वीं शताब्दी तक पहुँचते-पहुँचते प्रमुख साहित्यिक भाषा बन गयी। साहित्यिक भाषा के रूप में हिन्दी को जो ऊंचाई हासिल हुई वो सर्वविदित है, अलंकारों,रसों, छंदों से सजी-धजी हिन्दी का कोई शानी न था न है। भाषाओं में आकृतिमूलक वर्गीकरण के अनुसार कहा जा सकता है कि आज की हिन्दी बहिर्मुखी श्लिष्ट भाषा है।
देवनागरी लिपि एक वैज्ञनिक भाषा होने के सभी मापदण्डों पर खरी उतरती है इसीलिए सभी लिपियों में सर्वश्रेष्ठ लिपि है।इस भाषा के पास कोई कमी नहीं।अब धीरे-धीरे यह विचार बल पकड़ता जा रहा है कि सभी भारतीय भाषाओं के लिए यदि एक लिपि की आवश्यकता हो,तो देवनागरी को ही ग्रहण करना उत्तम है।
किसी भी भाषा की समृद्धशीलता का एक आधार उसकी शब्दावली का समृद्ध होना भी है और हिन्दी में शब्द-भंडार की कोई कमी नहीं।
हमारी प्रिय भाषा जैसी बोली जाती है वैसी ही लिखी जाती है,हिन्दी भाषा पूर्णतः प्रमाणिक भाषा है। भावों को अभिव्यक्त करने में और सूक्ष्म से सूक्ष्मतम विचार को व्यक्त करने में ये पूर्णतः योग्य भाषा है। परन्तु जिस तरह वर्तमान समय में नई पीढ़ी द्वारा इसकी उपेक्षा की जा रही है,दिन पर दिन हिन्दी माध्यम के विद्यालयों का स्तर गिर रहा है,ये विचारणीय विषय है, आज युवा अंग्रेजी बोलने के लिए बाध्य कर दिए गये हैं यदि वो हिन्दी में अपरिपक्व हो तो कोई बात नहीं, किन्तु अंग्रेजी में निपुण होना अतिआवश्यक है,ये सब पक्ष अति चिन्तनीय है। हमें ये तय करना होगा कि हिन्दी प्रेम केवल एक दिन का नहीं अपितु सदा को होना चाहिए और हर दिल में,देश के हर कोने में हिन्दी का घर होना चाहिए।
राष्ट्रीय चेतना के विकास के साथ-साथ आज जनमानस में जो जागरूकता है, उस परिप्रेक्ष्य में हिन्दी की भावी सम्भावनाओं का हम मूल्यांकन कर सकते हैं कि युग परिवेश में हिन्दी राष्ट्रीय आवश्यकताओं को पूरा करने में काफी समर्थ है, आज जरूरत इस बात की है कि लोग अपने दैनिक कार्यों में,आपसी पत्र-व्यवहार में उसका समर्थन करें,उसे हम जितना व्यवहार में लायेंगें उतनी ही उसकी शक्ति में वृद्धि होगी।
इतनी समृद्ध भाषा का भावी स्वरूप हमें मिलकर तय करना होगा। इस शक्तिशाली और समृद्ध भाषा को हमें पूर्णतः आत्मसात करना होगा। हर क्षेत्र में हिन्दी भाषा को वो अधिकार देने होगें जिसकी वो अधिकारी है।
पूर्ति वैभव खरे
