कविता ‘ मुखर ‘
जयपुर
हम हमेशा एकल परिवार के तौर पर पैतृक शहर से दूर रहे हैं । ऐसे में पड़ोसी ही परिवार सरीखे हो जाते है। पिछले साल की बात है। सुहाने मौसम में घर पर चाय पकौड़ों की शाम की बैठक हुई थी । फिर पिकनिक की बात चल पड़ी थी। हम तीन पड़ोसी साल में दो तीन बार पिकनिक कर ही लेते हैं । पिकनिक माने दूर कहीं घूमने जाना और घर से बना कर लाई हुई चीजें छक कर खाना और खूब खेलना। राजस्थान की चार दिनों की सर्दियों में गुनगुनी धूप का मजा लेना था । किट्टू भी छुट्टियों में आया हुआ है। उसे बचपन की बातें फिर याद दिलाई जाए । जोधपुर में कैसे हम स्कूटर ही पर जाते थे पिकनिक, भीमभड़क , कायलाना झील , मंडोर गार्डन … किट्टू के बचपन की सोचते -सोचते मैं अपने बचपन में पहुंच गई।

” भई पिकनिक तो बचपन में जाते थे। वहीं पकाते थे और खाते थे।” मैंने मन की बात रखी।
” अरे हां! जैसे मूवीज में दिखाते हैं, दरी और बास्केट …” अभी आश्वी बोल ही रही थी ही कि किट्टू बीच में कूद पड़ा , ” हॉलीवुड मूवीज ना, बरबीक्यू इन ओपन !”
” तुम बच्चों चुप ही रहो ! बात वही करो जो कर सकें !”
” इसमें क्या है, हम भी इस बार कहीं चूल्हा बनाएंगे और खाना बनाएंगे !”
प्राण को पता था ये सब बेसिर पैर की बातें हैं। बस प्लान ही करते रहेंगे । फिर सब फुस्स ! जबकि मुझे पता था कि शिल्पा -सोहन के साथ बात की जा सकती है। बनाने खिलाने में नीना भी आगे ही रहती है। तो तय हुआ। वीर हनुमान जी ? वहां तो गए थे ना पिछली बरसतों में ! भानगढ़ ? वहां खाना बनाने की इजाजत नहीं है !
“है भई, बाहर एक छतरी बनी हुई है…”
” अरे हां! जैसे मूवीज में दिखाते हैं, दरी और बास्केट …” अभी आश्वी बोल ही रही थी ही कि किट्टू बीच में कूद पड़ा , ” हॉलीवुड मूवीज ना, बरबीक्यू इन ओपन !”
” तुम बच्चों चुप ही रहो ! बात वही करो जो कर सकें !”
” इसमें क्या है, हम भी इस बार कहीं चूल्हा बनाएंगे और खाना बनाएंगे !”
प्राण को पता था ये सब बेसिर पैर की बातें हैं। बस प्लान ही करते रहेंगे । फिर सब फुस्स ! जबकि मुझे पता था कि शिल्पा -सोहन के साथ बात की जा सकती है। बनाने खिलाने में नीना भी आगे ही रहती है। तो तय हुआ। वीर हनुमान जी ? वहां तो गए थे ना पिछली बरसतों में ! भानगढ़ ? वहां खाना बनाने की इजाजत नहीं है !
“है भई, बाहर एक छतरी बनी हुई है…”
” बाहर क्या मजा आएगा ? भूतों के डेरे से दूर ?”
विराटनगर ?
विराटनगर ?
“वहां कहां जगह मिलेगी चूल्हा बनाने खाना बनाने की ?”
“तुम लोगों को खुद तो कुछ सूझता नहीं, और कोई सुझाए तो उसमें अड़चन ही लगाना है !”
बात संभालने के लिए मैंने कहा, ” आभानेरी चलते हैं! वहां बावड़ी के बाहर के अहाते में एक मंदिर है। उसके पीछे परसादी बनाने-खिलाने की जगह बनी हुई है !”
कोई अड़चन लगाता उसके पहले शिल्पा ने जोर से कहा, ” हां हां! बस यह फ़ाइनल हुआ!” बाक़ी सब भी हां में हां मिला दिए । पिकनिक जाना था कि नहीं ? प्राण और विक्की की बात मानते हुए तय यह हुआ कि खाना तो घर ही से बना कर ले जाएंगे । वहां सैंडविच बनाएंगे, आसान रहेगा ।
बच्चों को खेलने के सामान रखने की जिम्मेदारी दी।
“तुम लोगों को खुद तो कुछ सूझता नहीं, और कोई सुझाए तो उसमें अड़चन ही लगाना है !”
बात संभालने के लिए मैंने कहा, ” आभानेरी चलते हैं! वहां बावड़ी के बाहर के अहाते में एक मंदिर है। उसके पीछे परसादी बनाने-खिलाने की जगह बनी हुई है !”
कोई अड़चन लगाता उसके पहले शिल्पा ने जोर से कहा, ” हां हां! बस यह फ़ाइनल हुआ!” बाक़ी सब भी हां में हां मिला दिए । पिकनिक जाना था कि नहीं ? प्राण और विक्की की बात मानते हुए तय यह हुआ कि खाना तो घर ही से बना कर ले जाएंगे । वहां सैंडविच बनाएंगे, आसान रहेगा ।
बच्चों को खेलने के सामान रखने की जिम्मेदारी दी।
रविवार के दिन दोपहर 11-12 बजे गॉगल्स, हैट्स, चुस्त कपड़ों और सपोर्ट शूूज में सभी पिकनिक मूड में जब कार की डिक्की में सामान रखने लगे तो पता चला जोरदार तैयारी की गई है।
तेरी गाड़ी में चिप्स हैं …तेरी गाड़ी में कोल्ड ड्रिंक्स ! सब आधा-आधा बांट निकल पड़े जयपुर-आगरा मार्ग पर स्थित एक छोटा कस्बे आभानेरी की ओर। जब दोस्त साथ हों तो मंजिल से अधिक रास्ते सुहाने लगते हैं , लोंग ड्राइव ! घाट की घूणी के टनल से गुजरते हुए हमने कार के शीशे नीचे कर लिए थे और पूरे दम से चिल्लाए थे ! हम बड़े तो बच्चे बन ही गए, बच्चे भी एकदम खुल गए ! फुलटू मस्ती टाइम !
आभानेरी पहुंच कर सबसे पहले गए यहां स्थित भारत की सुंदरतम बावड़ियों ने शामिल चांद बावड़ी देखने । टिकट खिड़की से अवकाश मिलने से पहले ही एक गाइड मिल गया। यह अच्छा हुए। गाइड ने बताया कि इसकी स्थापत्य कला विश्व विख्यात है।९वीं शताब्दी में निर्मित इस तेरह तल की बावड़ी की त्रिकोणीय संरचना देखते ही बनती है।पुरातत्व विभाग को प्राप्त अवशेषों से ज्ञात जानकारी के अनुसार आभानेरी गाँव 3000 वर्ष से भी अधिक पुराना हो सकता है। गाइड लेने का एक सबसे जरूरी फ़ायदा यह हुआ कि उसने सही सही कोणों से हम सबकी फोटोग्राफी कर दी। बाहर एक सुव्यवसथित उपवन है । हम कार से सारा सामान ले कर वहीं दरियां बिछा कर बैठ गए। अब तक लंच का समय हो गया था। जब तक परोसगारी करते तब तक बच्चे तो वृक्षों की छांव में बैडमिंटन ले कर खेलने भी लगे। मैंने जैसे ही बैग से सारेगामा निकाला सबकी बांछे खिल गई ! एक संगीत ही की तो कमी थी! एफ एम चैनल पर गाने लगा दिया । पुलाव, दाल मखनी , मटर पनीर आदि देख कर बच्चे दौड़े चले आए । जब सब साथ में भोज का आनंद उठाते हैं तो अधिक ही खाया जाता है ना ! खाना खाने के बाद हम महिलाएं समेटने में लग गई, किट्टू ने सबको कैंफर से जल पिलाया। पुरुषों ने झूठे बर्तन लेे पास ही नल के नीचे धो लाए। फिर सबने मिल कर अंताक्षरी खेला । विक्की एकदम छुपा रुस्तम निकला । उससे एकल गाने भी सुने। नन्ही आद्या उड़न तश्तरी ले कर हमारे साथ ही खेल रही थी।अब तक बच्चे बैट बॉल लेे कर खेलने लगे थे। हम भी लगे खेलने। आश्वी को स्किपिंग रोप पर कूदना बहुत पसंद आया। हम बड़ों से अधिक देर दौड़ धूप वाले खेल नहीं खेले जा सके । साढ़े चार बजने को आए थे। नीना ने ताश निकाल लिया था । सोहन और हमारे परिवार में किसी को आता ही नहीं ! फिर तो अपने अपने घर परिवार की आदतों के विषय में नई पुरानी ख़ूब बातें निकल पड़ीं। हमने सबको प्याज, टमाटर , खीरा पकड़ा दिया गोल – गोल काटने को। शिल्पा और मैं लग गई ब्रेड स्लाइस में मक्खन लगाने । ना – ना करते करते भी सारे सैंडविच ख़त्म हो ही गए थे। सूरज ढलने में अभी वक्त था। सड़क पार हर्षद माता का प्राचीन मंदिर बड़ा सुहाना लग रहा था। प्राण ने कैमरा उठाया और चल दिया उधर। हम भी साथ साथ हो लिए। द्रविड़ शैली में बने हर्षत माता का मंदिर में बिखरे खंडित प्रस्तर व मूर्तियां अपनी नक्काशीदार भव्यता समेटे हुए है। इनकी दीवारों पर हिंदू धर्म के सभी 33 कोटी देवी-देवताओं के चित्र भी उकेरे गये हैं। मंदिर में पुजारी के बाल, दाढ़ी मूंछें और डील डौल संता क्लॉज जैसा लग रहा था। आरती के समय का वातावरण बड़ा शांत और सुखकर हो गया ! माथे पे तिलक और हाथों में प्रसाद लेे कर हम आनंदित हो प्रांगण की सीढ़ियां उतर रहे थे।
” प्राण भैया को चाय की तलब हो रही है लगता !”
” चाय तो हम भी पिएंगे !” विक्की तपाक से बोल पड़ा ।
“हम बनाते हैं चाय !” शिल्पा ने चमक कर बोला।
” बनाते हैं ? वो कैसे ?”
” हम लाए हैं साधन ! चाय पकौड़ों का इंतजाम है पूरा ! ” सोहन के बोलते ही सबके मुंह आश्चर्य से खुले रह गए ।
मंदिर के पीछे शेड लगा था जिसके नीचे बुझे चूल्हे के निशान और राख ही राख थी। परसादी खिलाने की व्यवस्था यहीं होती है। रेलिंग की चारदीवारी के बाहर बहुत सी सूखी झाड़ियां थी। युक्ता और किट्टू को लकड़ियां इकट्ठे करने को कहा गया जो काम उन्होंने ख़ुशी खुशी लेे लिया ! विक्की और प्राण को लगा हमने अच्छा खेल मचा रखा है, चाय पकौड़े तो नहीं ही बनेंगे। वे दोनों बाहर बाज़ार में चाय पीने चलेे गए। इधर मैंने ईंट पत्थर ढूंढे, शिल्पा ने उन्हें जमाए। सोहन रद्दी कागज़ और माचिस लाया था। बच्चों द्वारा इकट्ठे किए गए सुखी डंठलों से आग सुलगाई गई, मोट लक्कड़ डाले। मैंने चाय का बर्तन, चलनी व अन्य सामान निकाला। सोहन एक शीशी में सरसों का तेल लाया था और शिल्पा बड़े टिफिन में दाल के पकौड़ों का घोल तैयार करके लाई थी। पहले पकौड़े तलने का निश्चय हुआ तो यहां नीना ने हाथ लगाया। हरी चटनी भी वही लेकर आई थी। मस्त चटखारे लेे लेे कर सब खा रहे थे। प्राण और विक्की भी हाथ साफ़ किए जा रहे थे । बच्चों ही के लिए नहीं, यह हम सबके लिए कौतूहल था। बच्चों की ज़िन्दगी में कभी ऐसा यह पहला अनुभव था। हर पल कैमरे में कैद किया गया।
” क्या हुआ , पकौड़े ख़त्म ? “
तेरी गाड़ी में चिप्स हैं …तेरी गाड़ी में कोल्ड ड्रिंक्स ! सब आधा-आधा बांट निकल पड़े जयपुर-आगरा मार्ग पर स्थित एक छोटा कस्बे आभानेरी की ओर। जब दोस्त साथ हों तो मंजिल से अधिक रास्ते सुहाने लगते हैं , लोंग ड्राइव ! घाट की घूणी के टनल से गुजरते हुए हमने कार के शीशे नीचे कर लिए थे और पूरे दम से चिल्लाए थे ! हम बड़े तो बच्चे बन ही गए, बच्चे भी एकदम खुल गए ! फुलटू मस्ती टाइम !
आभानेरी पहुंच कर सबसे पहले गए यहां स्थित भारत की सुंदरतम बावड़ियों ने शामिल चांद बावड़ी देखने । टिकट खिड़की से अवकाश मिलने से पहले ही एक गाइड मिल गया। यह अच्छा हुए। गाइड ने बताया कि इसकी स्थापत्य कला विश्व विख्यात है।९वीं शताब्दी में निर्मित इस तेरह तल की बावड़ी की त्रिकोणीय संरचना देखते ही बनती है।पुरातत्व विभाग को प्राप्त अवशेषों से ज्ञात जानकारी के अनुसार आभानेरी गाँव 3000 वर्ष से भी अधिक पुराना हो सकता है। गाइड लेने का एक सबसे जरूरी फ़ायदा यह हुआ कि उसने सही सही कोणों से हम सबकी फोटोग्राफी कर दी। बाहर एक सुव्यवसथित उपवन है । हम कार से सारा सामान ले कर वहीं दरियां बिछा कर बैठ गए। अब तक लंच का समय हो गया था। जब तक परोसगारी करते तब तक बच्चे तो वृक्षों की छांव में बैडमिंटन ले कर खेलने भी लगे। मैंने जैसे ही बैग से सारेगामा निकाला सबकी बांछे खिल गई ! एक संगीत ही की तो कमी थी! एफ एम चैनल पर गाने लगा दिया । पुलाव, दाल मखनी , मटर पनीर आदि देख कर बच्चे दौड़े चले आए । जब सब साथ में भोज का आनंद उठाते हैं तो अधिक ही खाया जाता है ना ! खाना खाने के बाद हम महिलाएं समेटने में लग गई, किट्टू ने सबको कैंफर से जल पिलाया। पुरुषों ने झूठे बर्तन लेे पास ही नल के नीचे धो लाए। फिर सबने मिल कर अंताक्षरी खेला । विक्की एकदम छुपा रुस्तम निकला । उससे एकल गाने भी सुने। नन्ही आद्या उड़न तश्तरी ले कर हमारे साथ ही खेल रही थी।अब तक बच्चे बैट बॉल लेे कर खेलने लगे थे। हम भी लगे खेलने। आश्वी को स्किपिंग रोप पर कूदना बहुत पसंद आया। हम बड़ों से अधिक देर दौड़ धूप वाले खेल नहीं खेले जा सके । साढ़े चार बजने को आए थे। नीना ने ताश निकाल लिया था । सोहन और हमारे परिवार में किसी को आता ही नहीं ! फिर तो अपने अपने घर परिवार की आदतों के विषय में नई पुरानी ख़ूब बातें निकल पड़ीं। हमने सबको प्याज, टमाटर , खीरा पकड़ा दिया गोल – गोल काटने को। शिल्पा और मैं लग गई ब्रेड स्लाइस में मक्खन लगाने । ना – ना करते करते भी सारे सैंडविच ख़त्म हो ही गए थे। सूरज ढलने में अभी वक्त था। सड़क पार हर्षद माता का प्राचीन मंदिर बड़ा सुहाना लग रहा था। प्राण ने कैमरा उठाया और चल दिया उधर। हम भी साथ साथ हो लिए। द्रविड़ शैली में बने हर्षत माता का मंदिर में बिखरे खंडित प्रस्तर व मूर्तियां अपनी नक्काशीदार भव्यता समेटे हुए है। इनकी दीवारों पर हिंदू धर्म के सभी 33 कोटी देवी-देवताओं के चित्र भी उकेरे गये हैं। मंदिर में पुजारी के बाल, दाढ़ी मूंछें और डील डौल संता क्लॉज जैसा लग रहा था। आरती के समय का वातावरण बड़ा शांत और सुखकर हो गया ! माथे पे तिलक और हाथों में प्रसाद लेे कर हम आनंदित हो प्रांगण की सीढ़ियां उतर रहे थे।
” प्राण भैया को चाय की तलब हो रही है लगता !”
” चाय तो हम भी पिएंगे !” विक्की तपाक से बोल पड़ा ।
“हम बनाते हैं चाय !” शिल्पा ने चमक कर बोला।
” बनाते हैं ? वो कैसे ?”
” हम लाए हैं साधन ! चाय पकौड़ों का इंतजाम है पूरा ! ” सोहन के बोलते ही सबके मुंह आश्चर्य से खुले रह गए ।
मंदिर के पीछे शेड लगा था जिसके नीचे बुझे चूल्हे के निशान और राख ही राख थी। परसादी खिलाने की व्यवस्था यहीं होती है। रेलिंग की चारदीवारी के बाहर बहुत सी सूखी झाड़ियां थी। युक्ता और किट्टू को लकड़ियां इकट्ठे करने को कहा गया जो काम उन्होंने ख़ुशी खुशी लेे लिया ! विक्की और प्राण को लगा हमने अच्छा खेल मचा रखा है, चाय पकौड़े तो नहीं ही बनेंगे। वे दोनों बाहर बाज़ार में चाय पीने चलेे गए। इधर मैंने ईंट पत्थर ढूंढे, शिल्पा ने उन्हें जमाए। सोहन रद्दी कागज़ और माचिस लाया था। बच्चों द्वारा इकट्ठे किए गए सुखी डंठलों से आग सुलगाई गई, मोट लक्कड़ डाले। मैंने चाय का बर्तन, चलनी व अन्य सामान निकाला। सोहन एक शीशी में सरसों का तेल लाया था और शिल्पा बड़े टिफिन में दाल के पकौड़ों का घोल तैयार करके लाई थी। पहले पकौड़े तलने का निश्चय हुआ तो यहां नीना ने हाथ लगाया। हरी चटनी भी वही लेकर आई थी। मस्त चटखारे लेे लेे कर सब खा रहे थे। प्राण और विक्की भी हाथ साफ़ किए जा रहे थे । बच्चों ही के लिए नहीं, यह हम सबके लिए कौतूहल था। बच्चों की ज़िन्दगी में कभी ऐसा यह पहला अनुभव था। हर पल कैमरे में कैद किया गया।
” क्या हुआ , पकौड़े ख़त्म ? “

” ज़रा पेट से भी पूछ लो और झेल पाएगा भी ….” इतना सुनना था कि सब ठहाके लगा कर हंस पड़े ।
” अरे भई चाय तो …”
” क्यूं ? बाज़ार वाली पसंद नहीं आई क्या ? ” हम तीनों चुटकी लेने में कहां पीछे रहती हैं । तब तक चूल्हे पर से चाय की ख़ुशबू उड़ी ।
” वाह भई ! आनन्द ही आ गया !”
” क्या कहते हो , जरा आदर सम्मान से नाम लो अपने बड़े साले साहब का ! “
एक बार फिर ज़ोरदार ठहाका लगा !
चूल्हा अच्छे से पानी से बुझा, सारा सामान देख भाल कर समेट हम अंधेरा पड़े घर को हुए रवाना ।

कुट्टू अपने फ़ोन पर लिए फोटो दिखा रहा था। हमारे साथ खाना खाते कुत्ते, कौवे, मंदिर के पीछे के ऊंचे से पेड़ पर से उतरती चढ़ती गिलहरी, रोटी खाती गाय, बकरी…कितने प्राणी थे ना हम सब ! ऐतिहासिक बावड़ी और मंदिरों से भविष्य के कर्णधारों को जोड़ती हमारी पिकनिक की यह कड़ी आभानेरी सी दमक लिए हुए है ।

आज अठारह जून है, विश्व पिकनिक दिवस ! कोरोना काल में बाहर सुरम्य स्थल पर नहीं तो घर पर ही सही। चलो फिर बुला लेती हूं सोहन – शिल्पा, नीना – विक्की की फैमिली को, यादें ताज़ा हो जाए एक बार फिर !
