फ़िल्म कसाई 23 अक्टूबर को शेमारू मी पर आई है । कथाकार चरण सिंह पथिक की कहानी पर आधारित निर्देशक गजेंद्र एस श्रोत्रिय की यह फ़िल्म काफ़ी चर्चा में है । इस फ़िल्म में मीता वशिष्ठ और रवि झंखाल मुख्य भूमिकाओं में हैं। फ़िल्म कई फ़िल्म समारोह में सराही जा चुकी है तथा नायिका मीता को एक फ़िल्म समारोह में सर्वश्रेष्ठ नायिका का पुरस्कार भी मिल चुका है ।
इतनी महत्वपूर्ण फ़िल्म को देखने के लिए समय निकाला जाना चाहिए और अपनी व्यस्त दिनचर्या से डेढ़ घंटा निकालकर यह फ़िल्म देखी जानी चाहिए ।
मैं पहले ही बताना देना चाहती हूँ , मैं कोई फ़िल्म समीक्षक या विशेषज्ञ नहीं हूँ । मैं भी हर शुक्रवार नई फ़िल्म का इंतजार कर रही भीड़ का हिस्सा हूं। मेरे विचार एक सामान्य दर्शक के ही विचार हैं। इतने वर्षों में सिनेमा की जितनी समझ मुझमें आई है उसकी वजह से सार्थक सिनेमा ढूंढती और देखती हूं।
फ़िल्म ‘कसाई’ का ट्रेलर देखने के बाद आपको कहानी का कुछ अंदाजा हो जाता है लेकिन मैं बताना चाहती हूँ कि ट्रेलर से तो फिल्म शुरू होती है असली कहानी उसके बाद की है जिसके लिए आपको पूरी फिल्म देखनी होगी।
कसाई सिर्फ घर में छुपे कसाई की कहानी नहीं है । हमारे आस-पास हमारी सामाजिक व्यवस्था में राजनीतिक कुटिलता, अंध्विश्वास सामाजिक भेदभाव व महिलाओं के साथ दिन रात अत्याचार करते कई कसाई हैं । इंसानियत का दिन रात क़त्ल हो रहा है और
हम सिर्फ शोक मना रहे हैं । फ़िल्म बख़ूबी एक एक करके राजनीति और समाज का घिनौना चेहरा उजागर करती जाती है ।
संक्षेप में फ़िल्म की कहानी नायिका गुलाबी की जद्दोजहद की दास्तां है । उसकी आँखों के सामने उसके इकलौते बेटे सूरज (मयूर मोरे) को मौत के घाट उतार दिया जाता है और उसे हिदायत दी जाती है वह मुँह बंद रखें । क्या वह यह राज़ अपने तक रख पाएगी, क्या वह इस दर्द से उबर पाएगी । क्या आप अपनों के ही खिलाफ आवाज उठाएगी और क्या उसके बेटे की तड़पती आत्मा को शांती मिल पाएगी । धीरे-धीरे आपको इन सभी सवालों के जवाब मिलते जाते हैं ।
ग़ुलाबी का दर्द सिर्फ अपने बेटे को खो देने का दर्द नहीं है और यह इंसाफ और सिर्फ वह अपने बेटे के लिए नहीं मांग रही है । इस विद्रोह में उसकी देवरानी कस्तूरी का दुःख भी शामिल है उसकी बहू मिस्री का भी । यह लड़ाई एक ढोंगी बाबा और उस पर यकीन करने वाले सभी लोगों के खिलाफ भी है। एक ही किरदार मैं कितने रंग है और किस तरह वर्षों के दमन से इकट्ठा हुआ लावा ज्वालामुखी की तरह फटता है यह ढोंगी बाबा को सबक सिखाते हुए एक दृश्य में यह आपको नज़र आता हैं।
राजनीति इस हादसे की वजह है और कहानी का केंद्र बिंदु भी । किरदारों द्वारा लिए गए सभी अच्छे बुरे फैसले किसी न राजनितिक महत्वाकांक्षा से प्रेरित हैं । गावों में गहराई तक पसर चुकी यह राज करने की भूख किस तरह वहाँ रिश्तों को खोखला कर रही है । किस तरह सिर्फ एक सरपंची के लिए इंसान सबकुछ दांव पर लगाने को तैयार है ।
सरपंच पूर्णाराम के किरदार में (वीके शर्मा) ने और उनके प्रतिद्वंद्वी के किरदार में ( अशोक बंथिया) प्रभावित किया है।
महिला किरदार , नायिका के अलावा भी फ़िल्म के अन्य महिला किरदार मज़बूती से खड़े नजर आते हैं । चाहे वह गुलाबी की बहू मिश्री का किरदार निभाती हुई ( ऋचा मीना) हो या फिर कस्तूरी। गुलाबी के होने से इन्हें हौसला मिलता है।
फ़िल्म का अंत एक टीस छोड़ जाता है , आप आखिरी दृश्य देखते हुए सोचते हो काश आप कुछ कर पाते । शायद हमें इस पल तक पहुंचाना ही कहानीकार और निर्देशक का उद्देश्य है ।
निर्देशक ने कहानी की पकड़ बरकरार रखी है । सभी कलाकारों ने बेहतरीन अभिनय किया है । मयूर और ऋचा को निश्चित ही इस फ़िल्म के बाद पहचान मिलेगी । लेकिन फ़िल्म कोअपने अभिनय की पकड़ से मजबूती से थामा हुआ है मीता वशिष्ठ ने । कमाल का अभिनय किया है उन्होंने ,हर ओर से उनके निभाए इस क़िरदार की बात हो रही है ।
फ़िल्म की शूटिंग उसी घर में हुई हैं जहां पथिक जी ने यह कहानी लिखी । संवाद पूर्वी राजस्थानी बोली में हैं और आसानी से समझे जा सकते हैं । निर्देशक ने पटकथा और संवाद के साथ साथ संपादन का जिम्मा भी खुद ही उठाया है । यही वजह है कि संपादन में कुछ खामियां नज़र आती है । एक और चीज़ जो बेहतर हो सकती थी वह है फ़िल्म का पार्श्व संगीत। कई जगह संगीत दृश्यों से मेल खाता नज़र नहीं आता । इन छोटी मोटी खमियाँ के बावजूद फिल्म बहुत अच्छी बनी है । सीमित संसाधनों में एक महत्वपूर्ण कहानी को दर्शकों तक पहुँचाने के ये निर्देशक , निर्माता और फ़िल्म कसाई की पूरी टीम को बधाई ।
हम हमेशा सार्थक सिनेमा की बात करते हैं, फिल्मों की गिरती गुणवत्ता पर बहस करते हैं । प्रादेशिक सिनेमा की खराब हालत पर उदास होते हैं , लेकिन जब एक मौलिक ईमानदार फ़िल्म हमारे सामने आती है तो क्या हम उसे देखते हैं ?? क्या एक दर्शक के रूप में यह हमारी जिम्मेदारी नहीं है कि हम ऐसी फिल्में देखें ताकि ऐसी फिल्में बनती रहें ।
-ममता पंडित
सह -संपादक
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