जीवन एक पतंग रे भैया
जीवन एक पतंग रे भैया
जीवन एक पतंग
साँसों की डोरी को थामे
उड़े हवा के संग रे भैया
जीवन एक पतंग ।
काग़ज़ का बाना है इसका
सरकंडो का ताना
धड़कन की लेई से बनता
दैहिक रूप सुहाना
बड़ा ग़ज़ब कारीगर है जो
देता नहीं दिखाई
युगों युगों से जिसका साँचा
होता नहीं पुराना
वही मोड़ता रीढ़ हमारी
वही डालता तंग रे भैया
जीवन एक पतंग ।
इक डोरी से तंग है डलते
इक डोरी से उड़ती
जैसे जैसे मिले इशारे
वैसे वैसे मुड़ती
सम्बन्धों के पेच हैं लड़ते
चाहे या अनचाहे
साथ एक डोरी का छूटे
दूजी से जा जुड़ती
रिश्तों की खींचा-तानी के
निर्धारित हैं ढंग रे भैया
जीवन एक पतंग ।
कभी उड़े ये इतनी ऊँची
चरखी होती खाली
कभी हाथ से ही कट जाती
बन कर एक सवाली
अलग रूप-आकार लिये ये
मन को ख़ूब लुभाये
जब जब उलझे डोरी तो फिर
लगती है जंजाली
आरोही भाते पर चुभते
अवरोही आहंग रे भैया
जीवन एक पतंग
कन्नी तिरछी तुक्कड़ हो या
हो विशाल कनकव्वा
उड़ना लड़ना कटना सबको
पौनी हो या पव्वा
इक दंगल में शामिल हैं सब
बिना नियम को जाने
कारीगर के खेल को हमने
बना लिया है हव्वा
कट जाने का शोक मनाएँ
या बजने दें चंग रे भैया
जीवन एक पतंग ।
©✍लोकेश कुमार सिंह ‘साहिल’