कविता
“ क्यों नाहक मग़रूर हुआ “
साँझ की गोद में सूरज बैठा,
सोचने को मजबूर हुआ ।
सारा दिन बेकार जला ,
आख़िर मैं किसका नूर हुआ।।
अरे दूर गगन के पंछी,
क्यूँ तूँ पाँख सिकोड़े बैठा है।
ज़मीं ना सही आसमाँ तेरा,
क्यूँ उससे तूँ दूर हुआ।।
ये ज़िंदगी गुज़री अपनी,
मौसम के पत्तों की जैसी।
ग़म ख़ुशियों का सरगम जीवन,
दुनियाँ का दस्तूर हुआ ।।
कुदरत बदलके करवट पूछ रही,
अब कैसे हो तुम।
किरण आस की ढूँढ रहा,
गर्दिश में जो महसूर हुआ।।
आज लहरों के थपेड़ों से,
लहरों में लहरें बन लहरा।
हर कोशिश नाकाम रही,
जब साहिल से मैं दूर हुआ।।
ये रुतबा नाते प्यारे रिश्ते,
अपनों के घेराव में था।
इन सबमें हलचल होते ही,
भीतर एक नासूर हुआ ।।
बैठा ऊपर कर रहा वो,
लम्हे दर लम्हे का हिसाब ।
क्यूँ तूं छोटी बात करे है,
क्यों नाहक मग़रूर हुआ ।।
(महसूर= घिरा)
गीता कौशिक “रतन”
408 Belrose Drive,
Cary, NC 27513 USA