बिहार के मुंगेर जिले के सिमरिया घाट गाँव में 23 सितंबर 1908 को जन्में महाकवि रामधारी सिंह दिनकर जी ने गद्य और पद्य दोनों ही विधाओं में श्रेष्ठ कार्य कर हिंदी भाषा को समृद्ध बनाने में अपना अमूल्य योगदान दिया है।साहित्य अकादमी,ज्ञानपीठ,और पद्मभूषण से सम्मानित दिनकर जी का महाभारत पर आधारित प्रबंध काव्य ‘कुरुक्षेत्र’ विश्व के सौ सर्वश्रेष्ठ काव्यों में शामिल है।कुरुक्षेत्र, उर्वशी,हुंकार, संस्कृति के चार अध्याय,परशुराम की प्रतीक्षा, हाहाकार इत्यादि, उनकी कृतियों में से एक सुंदर सी कृति है ‘रश्मिरथी’।जो एक कथाकाव्य है जिसमें दानवीर कर्ण के चरित को समझाया गया है।कथा-काव्य के बारे में दिनकर जी स्वयं लिखते है कि ‘कथा-काव्य का आनंद खेतों में देशी पद्धति से जई उपजाने के आनंद के समान है;यानी इस पद्धति से जई के दाने तो मिलते ही हैं,कुछ घास और भूसा भी हाथ आता है,कुछ लहलहाती हुई हरियाली देखने का भी सुख प्राप्त होता है और हल चलाने में जो मेहनत करनी पड़ती है,उससे कुछ तंदुरुस्ती भी बनती है।’ सात सर्गों में लिखी गई रश्मिरथी के प्रत्येक सर्ग में कथा को आगे बढ़ाते हुए न सिर्फ कर्ण बल्कि कर्ण के इर्दगिर्द सभी पात्रों के मनोभावों और युध्द की विभीषिका को प्रस्तुत किया गया है।
रश्मिरथी का प्रथम सर्ग कर्ण के जीवन को दर्शाता है कर्ण का परिचय कराती पंक्तियाँ कहती है कि
“जिसके पिता सूर्य थे,माता कुंती सती कुमारी,
उसका पलना हुई धार पर बहती हुई पिटारी।
सूत-वंश में पला,चखा भी नहीं जननी का क्षीर,
निकला कर्ण सभी युवकों में तब भी अद्भुत वीर।”
रंग-भूमि में अर्जुन को कर्ण ललकारते हुए कहता है ‘फुले सस्ता सुयश प्राप्त कर,उस नर को धिक्कार’।परंतु कुरुवंश के आचार्य कृपाचार्य कहते है,हे वीर पहले तुम अपनी जाति बताओ,फिर अर्जुन से युद्ध की बात करना।तुम बिना किसी राजवंश और राज्य के अर्जुन से युद्ध नहीं लड़ सकते हो।उस क्षण क्षोभित कर्ण के ये उद्गार हृदय को द्रवित करने वाले है-
“जाति-जाति रटते,जिनकी पूँजी केवल पाषंड,
मैं क्या जानूँ जाति?जाति हैं ये मेरे भुजदंड।”
इस सम्पूर्ण घटना में पूरे महाभारत में खलनायक की भूमिका में दिखने वाले दुर्योधन यहाँ ‘सुयोधन’ की भूमिका में आगे आता है और कर्ण को ‘अंगदेश’ का राज्य सौंपता है।सुयोधन का यह कार्य उसे कर्ण के रूप में सदा साथ निभाने वाला एक परममित्र प्रदान करता है।
रश्मिरथी के द्वितीय सर्ग का संबंध कर्ण की शिक्षा एवं गुरु परशुराम से है।महेंद्रगिरि पर निवास करने वाले परशुराम कवच-कुंडल धारी कर्ण को ब्राह्मण पुत्र मानकर उसे शिक्षा देना प्रारंभ करते है।परंतु एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना कर्ण का रहस्य उद्घाटित कर देती है।जब परशुराम ऋषि कर्ण की जंघा पर सिर रखकर निंद्रा में लीन होते है,उसी वक्त कर्ण को एक कीड़ा काट लेता है।वो उस पीड़ा को चुपचाप सह लेता है,परंतु उस घाव से निकला रक्त जब गुरु के शरीर को स्पर्श करता है तो गुरु की नींद टूट जाती है।वे समझ जाते है की इतना धैर्य किसी ब्राह्मण कुमार में नहीं हो सकता है।कर्ण अपना सत्य स्वीकार कर लेता है।
“सूत-पुत्र मैं शूद्र कर्ण हूँ, करुणा का अभिलाषी हूँ,
जो भी हूँ, पर,देव,आपका अनुचर अन्तेवासी हूँ।”
कर्ण के इस अपराध से क्रोधित परशुराम उसे शाप देते है कि जो ब्रह्मास्त्र की शिक्षा मैंने तुम्हें दी है,अंतिम समय तू उसे भूल जाएगा।
“सिखलाया ब्रह्मास्त्र तुझे जो,काम नहीं आएगा,
है यह मेरा शाप,समय पर उसे भूल तू जाएगा।”


रश्मिरथी के तृतीय सर्ग का आरंभ वहाँ से होता है,जब पांडव तेरह वर्ष के वनवास के बाद पुनः इंद्रप्रस्थ लौटते है।पांडवो की ओर से कृष्ण मैत्री का प्रस्ताव रखते है-
“दो न्याय अगर तो आधा दो,
पर,इसमें भी यदि बाधा हो,
तो दे दो केवल पाँच ग्राम,
रक्खो अपनी धरती तमाम।”
परन्तु दुर्योधन उस प्रस्ताव को अस्वीकार कर देता है और भगवान को बांधने हेतु आगे बढ़ता है।।
“दुर्योधन वह भी दे न सका,
आशीष समाज की ले न सका,
उलटे, हरि को बाँधने चला,
जो था असाध्य, साधने चला।
दुर्योधन के इस कृत्य से कुपित भगवान अपना विराट स्वरूप प्रदर्शित करते है और चेतावनी देते है कि
“याचना नहीं,अब रण होगा,
जीवन-जय या की मरण होगा।”
इसी सर्ग में कृष्ण और कर्ण के मध्य हुए वार्तालाप को भी बताया गया है।कृष्ण कहते है की कर्ण तुम ही कुंती के ज्येष्ठ पुत्र हो।बल,बुद्धि और शील में तुम परम श्रेष्ठ हो।अगर तुम पांडवो का साथ दे देते हो,तो पांडव तुम्हे अपना राजा स्वीकार कर लेंगे।तुम्हारे इस कार्य से ये भीषण युध्द स्वतः ही रुक जाएगा और दुर्योधन भी मान जाएगा।इस बात को सुन कर्ण कहता है कि हे कृष्ण, जो तुम मेरी जन्म की कथा कह रहे हो वो कथा तो मैं सूर्य से सुन चुका हूँ।मैं इस विपत्ति की घड़ी में दुर्योधन का साथ नहीं छोड़ सकता हूँ।वो तो मेरे लिए माता और भाई से भी बढ़कर है।
“कुंती ने केवल जन्म दिया,
राधा ने माँ का कर्म किया,
पर कहते जिसे असल जीवन,
देने आया वह दुर्योधन।
वह नहीं भिन्न माता से है,
बढ़कर सोदर भ्राता से है।”
अपनी बात पर अड़िग रहने वाला कर्ण रथ से उतर प्रस्थान करता है।कृष्ण मन ही न कहते है..
बोले कि,”वीर!शत बार धन्य,
तुझ-सा न मित्र कोई अनन्य।
इस कथाकाव्य के चतुर्थ सर्ग में इंद्र द्वारा कर्ण से कवच और कुंडल माँगने के प्रसंग को बताया गया है।दान की महत्ता को बताती ये पंक्तियाँ कितनी सुंदर है-
“दान जगत का प्रकृत धर्म है,मनुज व्यर्थ डरता है,
एक रोज़ तो हमें स्वयं सब-कुछ देना पड़ता है।”
पांडव यह जानते थे कि कवच और कुंडल से युक्त कर्ण को परास्त करना असंभव सा है।अतः उन्हें लेने हेतु याचक के रूप में देवराज इंद्र को कर्ण के समीप भेजा जाता है।यह बात जगविख्यात थी कि रविपुजन के समय कोई भी याचक कर्ण के द्वार से खाली हाथ नहीं जाता था।उसी समय इंद्र भी एक भिक्षुक के रूप में कर्ण के समक्ष आते है।कर्ण उन्हें मनचाही वस्तु देने का वचन देते है।तब इंद्र अपना साहस समेट कर बोलते है-
“धन को लेकर भीख नहीं मैं घर भरने आया हूँ,
और नहीं नृप को अपना सेवक करने आया हूँ।
यह कुछ मुझको नहीं चाहिये, देव धर्म को बल दें,
देना हो तो मुझे कृपा कर कवच और कुंडल दें।”
कर्ण भिक्षुक रूप में खड़े इंद्र तथा उनकी योजना को जान लेता है और प्रसन्नतापूर्वक अपना प्रण पूर्ण करता है।
“भुज को छोड़ न मुझे सहारा किसी और सम्बल का,
बड़ा भरोसा था,लेकिन,इस कवच और कुंडल का।
पर,उनसे भी आज दूर संबंध किये लेता हूँ,
देवराज! लीजिये खुशी से महादान देता हूँ।”
छल से कवच और कुंडल प्राप्त कर,ग्लानि से भरे इंद्र कर्ण को एकघ्नी नामक अमोघ अस्त्र प्रदान करते है,जिसका वार कभी विफल नहीं हो सकता है,परंतु उसे सिर्फ एक बार ही काम मे लिया जा सकता है।
“दे अमोघ शर-दान सिधारे देवराज अम्बर को,
व्रत का अंतिम मूल्य चुका कर गया कर्ण निज घर को।”
पंचम सर्ग माता कुंती और कर्ण के मध्य हुए मार्मिक वार्त्तालाप के प्रसंग का वर्णन करता है।जब कर्ण भगवान कृष्ण की बात को मानने से मना कर देता है,तब युद्ध से एक दिन पूर्व एक माँ अपने ही पुत्रों के मध्य होने वाले युद्ध को टालने हेतु अंतिम प्रयास करती है।माता कुंती कर्ण के पास जाती है तथा उसे अपने ममत्व की याद दिलाती है।वो कहती है कि पुत्र जब तुम्हारा जन्म हुआ,तब मैं अविवाहिता थी।अतः समाज के भय से मुझे तुम्हें छोड़ना पड़ा,परंतु आज भी तुम मेरे ही पुत्र हो।
“राधा का सुत तू नहीं,तनय मेरा है,
जो धर्मराज का,वहीं वंश तेरा हैं।’
परंतु कर्ण, जन्म होते ही एक अबोध बालक को नियति के भरोसे छोड़ देने वाली इस माता की कोई भी बात सुनने को तैयार नहीं है।वो कहता है-
“है कथा जन्म की ज्ञात,न बात बढ़ाओ,
मत छेड़-छेड़ मेरी पीड़ा उकसाओ।
हूँ खूब जानता, किसने मुझे जना था,
किसके प्राणों पर मैं दुर्भार बना था।”
कर्ण की बातों से व्यथित कुंती कहती है मैंने सुना है कि तु बड़ा दानी है,परंतु आज ये अभागिन तेरे द्वार से खाली हाथ जा रही है।तब कर्ण कहता है कि तुम भी मेरे द्वार से खाली हाथ नहीं जाओगी।वचन देता हूँ कि अर्जुन के अलावा मैं अन्य किसी पांडव का जीवन नहीं हरूँगा।कर्ण कहता है-
“सच है कि पांडवों को न राज्य का सुख है,
पर,केशव जिनकें साथ,उन्हें क्या दुख हैं?
उनसे बढ़कर मैं क्या उपकार करूँगा?
है कौन त्रास, केवल मैं जिसे हरूँगा?“
कर्ण भीगे हुए नेत्रों के साथ माँ के चरण छूकर उन्हें विदाई देता है और कुंती भी बड़े ही दुखी हृदय से लौट जाती है।
रश्मिरथी का षष्ठ सर्ग पितामह भीष्म और कर्ण के संवाद पर आधारित है।युद्ध के मैदान में भीष्म जब घायल होकर शरशय्या पर लेटे होते है,तब कर्ण उनके समीप आता है।
“छू भीष्म देव के चरण युगल,
बोला वाणी राधेय सरल,
हे तात! आपका प्रोत्साहन,
पा सका नहीं जो लांछित जन,
यह वही सामने आया है,
उपहार अश्रु का लाया है।”
कर्ण,भीष्म से युध्द में जाने की अनुमति माँगता है तथा दुर्योधन को विजय दिलाने का संकल्प सुनाता है।परंतु भीष्म,उसे कहते है कि यदि दुर्योधन तुम्हारी बात मान सके तो यह युद्ध रोक दो।कौरव और पांडव दोनों मिलकर शांतिपूर्वक रहे यही मेरी अंतिम इच्छा है।जब कर्ण यह कहता है कि अब युद्ध के अलावा और कोई मार्ग नहीं,तब निराशा में भरे भीष्म कहते है-
“गांगेय निराशा में भर कर,
बोले-तब हे,नरवीर प्रवर।
जो भला लगे,वह काम करो,
जाओ रण में लड़ नाम करो।”
इस प्रकार गुरु द्रोण के नेतृत्व में पाँच दिन तक युद्ध चलता रहा।सिर्फ और सिर्फ विजय की कामना में दोनों ही पक्षों ने धर्म को विस्मृत कर दिया।दिनकर जी लिखते है कि
“है धर्म पहुँचना नहीं,धर्म तो,
जीवन भर चलने में है।
फैला कर पथ पर स्निग्ध ज्योति,
दीपक समान जलने में है।”
कर्ण, अर्जुन को द्वैरथ-रण की चुनौती देते हुए आगे बढ़ता है।तभी पांडव पक्ष से घटोत्कच आगे बढ़ता है।उसके प्रकोप से कौरव सेना में मचे हाहाकार को रोकने हेतु दुर्योधन,कर्ण को एकघ्नी का संधान करने को कहता है।कर्ण ने जिस अमोघ अस्त्र को अर्जुन के लिए बचा कर रखा था,वह घटोत्कच के संहार में काम आ जाता है।इस जीत में भी कर्ण अपनी हार देख रहे है,जबकि अपने योद्धा को खोकर भी भगवान हँस रहे है।
“हारी हुई पांडव-चमू में हँस रहे भगवान थे,
पर जीत कर भी कर्ण के हारे हुए से प्राण थे।”
अंतिम सर्ग का प्रारंभ वहाँ से होता है जब गुरु द्रोण के निधन के पश्चात कर्ण सेनापति के रूप में युद्धभूमि में उतरता है।वह कहता है कि कवच-कुंडल और एकघ्नी से रहित कर्ण अब भी किसी से कम नहीं है।
“कवच-कुंडल गया;पर,प्राण तो हैं,
भुजा में शक्ति,धनु पर बाण तो हैं।
गयी एकघ्नी तो सब कुछ गया क्या?
बचा मुझमें नहीं कुछ भी नया क्या?”
सम्पूर्ण युद्ध में कर्ण माता कुंती को दिए अपने वचन को निभाता हैं।युधिष्ठिर, भीम,नकुल और सहदेव चारों पांडवो को वो जीवनदान प्रदान करता है।
“ये चार फूल हैं मोल किन्हीं,
कातर नयनों के पानी के,
ये चार फूल प्रच्छन्न दान,
हैं किसी महाबल दानी के।”
शत्रु सेना में हाहाकार मचाता हुआ कर्ण अपने सारथी शल्य को अपना रथ अर्जुन के समक्ष ले जाने का आदेश देता है।उधर कृष्ण,अर्जुन को सावधान करते है,साथ ही बताते है कि मैं तुम दोनों के बल को जानता हूँ परंतु मन ही मन कर्ण को तुझसे भी बड़ा वीर मानता आया हूँ।युद्ध भूमि में कृष्ण और कर्ण के मध्य धर्म-अधर्म के विषय पर संवाद होता है,दोनों ही एक दूसरे पर दोषारोपण करते है।दोनों वीर एक दूसरे के सामने आ जाते है,भीषण युद्ध प्रारंभ होता है।कर्ण के रथ का पहिया धरती में धँस जाता है,वह नीचे उतर उसे निकालने जाता है।तभी भगवान,अर्जुन को बताते है कि यही उचित अवसर है,गांडीव उठाकर अपने शत्रु को संहार कर दो।
“शरासन तान,बस,यही अवसर है,
घड़ी फिर और मिलने को नहीं है।
विशिख कोई गले के पार कर दे,
अभी ही शत्रु का संहार कर दे।”
इस बात पर कर्ण हँसता हुआ कहता है कि हे कृष्ण! आपकी और पांडवो की शोभा बढ़ाने वाले इस कार्य मे देरी मत कीजिये।थोड़ी कृपा और करके आप ही सुदर्शन उठाकर मेरा संहार कर दीजिए।तभी एक बाण, कर्ण को आ लगता है,उसके प्राण सूर्य में समा जाते है।सारे भुवन में उदासी छा जाती है।कर्ण की मृत्यु पर हर्ष व्यक्त करते युधिष्ठिर को कृष्ण कहते है कि यह जीत असल मे कर्ण की ही है।यह भूलकर की कर्ण हमारा शत्रु था,गुरु द्रोण और पितामह भीष्म की तरह ही उसका सम्मान करिए।
“समझ कर द्रोण मन मे भक्ति भरिये,
पितामह की तरह सम्मान करिये।
मनुजता का नया नेता उठा है।
जगत से ज्योति का जेता उठा है।”
इतनी महान रचना कर इस राष्ट्र और अपनी भाषा को सम्मान दिलाने वाले राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर जी को शत-शत नमन।

सुरेश चंद्र
जालोर(राजस्थान)
मोबाइल-8290711762
