इस गुलाबी शहर और इसके आस पास के रमणीक स्थल हमें अपनी तरफ खीचते हैं। लंबे इंतज़ार के बाद आख़िरकार कुछ दिन रणथम्भोर राष्ट्रीय उद्यान के करीब प्रकृति की गोद में बिताये… और शब्दों में बयां नही कर सकती जो सुकून और शांति मुझे महसूस हुई।
एक अनोखी खुशी, क्षणिक नहीं …ठहरकर मेरा साथ लंबे समय तक निभाने वाली खुशी। ऐसी खुशी जो ऊँची अट्टालिकाओं की सुसज्जित दुकानों में जाकर , हर हफ्ते नई फिल्म देखकर कभी नहीं मिलती।
और मुझसे भी ज्यादा उत्साहित थी मेरी छह साल की बिटिया, जिसे इस स्क्रीन की दुनिया की बदौलत यह तो पता है कि दुनिया के किस कोने में पर विशेष प्रकार के पेंगुइन पाए जाते हैं लेकिन जो बकरी को देख उछल पड़ती है” look mamma goat’….
वो अपने सामने हिरणों के झुंड, पेड़ों पर उछल कूद करते बंदरों के झुंड और जंगल में बेखौफ घूमती शेरनी को देख हतप्रभ थी, क्योंकि ये सब जानवर उसने अभी तक चिड़ियाघर के बंद पिंजरों में ही देखे थे।
इस बात से मुझे एहसास हुआ कि कितनी दूर आ गए हैं हम प्रकृति से प्रगति की सीढ़ियां चढ़ते चढ़ते। हमारी नई पीढ़ी शुद्ध हवा की खुशबू से नावाकिफ है और पानी के खेल उनके लिए सिर्फ स्वीमिंग पूल तक सीमित है। उन्हें कैसे फर्क समझाये की ‘pool side’ बैठकर वो महसूस नही किया जा सकता जो तालाब, झील या नदी किनारे बैठकर कर सकते हैं। वो उस प्रक्रिया से बिल्कुल अनजान हैं जिससे गुजरकर उनका भोजन उनकी थाली तक पहुँचता है। यकीं मानिए शहरों में रह रहे पांच साल की उम्र तक के बच्चों ने ‘गेहूँ’ ‘ नही देखा है। उन्हें चाँद, सितारों व आधुनिक उपग्रहों का ज्ञान है लेकिन मानव द्वारा अपनाये गए जीवन यापन के सबसे पहले तरीके खेती के बारे में उन्हें नहीं पता।कितनी किलोमीटर की यात्रा करनी पड़ती है हम शहर वालों को बच्चों कों सिर्फ खेत दिखाने के लिए। वो सब इंजीनियर,डॉक्टर, वकील बनना चाहते हैं आपने किसी बच्चे के मुंह से कभी सुना कि ‘किसान’ बनना चाहता है? कैसे कहेगा जब कभी हम उनसे इस बारे में बात ही नहीं करते। हमारे नई पीढ़ी इस सबसे अनजान है क्योंकि हमने प्रकृति से नाता तोड़ लिया है।
ईश्वर के वरदान स्वरूप प्राप्त , विविधताओं और प्राकृतिक सौंदर्य से सजे इस अनूठे ग्रह के साथ हमने ये क्या कर दिया है? जीवन की मूलभूत जरूरत हवा और पानी तक हम शुद्ध नहीं रख पाए। हमारी आने वाली पीढ़ियां अगर हमसे पूछ रही हैं ‘आपकी हिम्मत कैसे हुई~’ (how dare you?)’ तो उनका सवाल गलत नहीं है। गलत हम हैं और हमे यह स्वीकारा करना होगा कि जीवन को आसान बनाने की इस दौड़ में हमने जीवन जीना ही मुश्किल बना दिया है।
क्या हम इस ग्रह के प्रति अपनी जिम्म्मेदारी बखूबी निभा रहे हैं? क्या हम जिस गति से प्रकृति का दोहन कर रहे हैं उसी गति से संरक्षण के प्रयास हो रहे हैं? जवाब है नहीं …..क्योंकि अगर ऐसा होता तो स्थिति इतनी भयावह नहीं होती। हम सभी जानते हैं कि जल,वायु,मिट्टी के बिना जीवन संभव नहीं है… फिर भी हम उपजाऊ भूमि पर बहुमंजिला इमारत खड़ी कर रहे हैं, बोतलों में मिनरल वाटर पीकर खुश हैं और रोज़ नई तकनीक की धुआँ उड़ाती गाड़ियां ख़रीदते जा रहे हैं। पहले ही बहुत देर हो चुकी है, अब हम हाथ पर हाथ रखकर नही बैठ सकते है।
जल और वायु प्रदूषण को रोकने व कम करने के लिए युद्ध स्तर पर कार्य करने की जरूरत है। उपजाऊ मिट्टी को भी उसमें रोज़ घुलते हुए रसायनों से बचाना होगा। पेड़ ,जंगल,नदी, साफ हवा ये सब हमारे आस पास ही हैं हमने खुद को इनसे दूर कर लिया है। प्राकृतिक संपदा संरक्षण की इस मुहिम को एक आंदोलन का रूप देना होगा।
व्यक्तिगत स्तर पर शुरू कीजिए छोटी छोटी चीजों से….. ये मत सोचिये की एक के कुछ करने से क्या होगा। छोटे छोटे बड़े प्रयास ही मिलकर बड़ा परिवर्तन लाते हैं। अपने घरों में नल बंद करिये, टपकते नलों को ठीक कराइये। लाल बत्ती पर गाड़ी बंद करिये। चार दोस्त एक ही जगह जा रहे है चार नहीं एक ही गाड़ी लेकर जाइये । अगर आपके आसपास के किसी जल स्त्रोत में किसी उद्योग का कचरा फेंका जा रहा है तो उसकी शिकायत करिये। जन्मदिन व विशेष आयोजनों पर वृक्षारोपण करिये। ये सब और ऐसे बहुत से काम हर कोई आसानी से कर सकता है। बहुत जरूरी है ये समझना कि ये सिर्फ एक सामूहिक नहीं व्यक्तिगत जिम्मेदारी भी है।
अपनी जड़ों की तरफ लौटने का वक़्त आ गया है। अब और देर नहीं कर सकते। इस सुंदर प्रकृति को सहेजना है अपने लिए व अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए…।
-ममता पंडित सह संपादक
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