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बहुमुखी व्यक्तित्व के धनी मशहूर स्वतंत्रता सेनानी पद्मभूषण श्री राजशेखर बोस जी ने हर क्षेत्र में अपनी प्रतिभा से अमिट छाप छोड़ी है और देश के लिए नींव का पत्थर बनकर कार्य किया है।
राजशेखर बोस जी नेताजी के बड़े भाई शरत चंद्र बोस जी के साडू थे और स्वतंत्रता संग्राम में इनके अतुलनीय योगदान से भी शायद ही कोई अनभिज्ञ होगा।
देश में स्वतंत्रता प्राप्ति से भी पहले प्रथम बार झंडारोहण अनुशीलन समिति के सदस्यों व बोस परिवार द्वारा राजशेखर जी के बोस हाउस में ही फहराया गया जो कि राजशेखर बोस परिवार की शान में एक नायाब उपलब्धि है।
लेकिन इनकी इतनी पहचान भर ही काफी नहीं है।
ये महान वैज्ञानिक भी थे। राजशेखर बोस के बनाये बॉम्ब को ही ऋषि अरविंदो घोष ने अपने भाई के साथ मिलकर 1908 में अलीपुर बॉम्ब केस में इस्तेमाल किया था और इस ऐतिहासिक घटना के बाद ही ब्रिटिश साम्राज्य इतना हिल गया था कि ब्रिटिशर्स को अपनी राजधानी कोलकाता से दिल्ली बनानी पड़ी।
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शक के आधार पर क्रांतिकारियों की मदद करने के कारण ब्रिटिश सेना अब इन्हें ज़िंदा पकड़ना चाहती थी लेकिन राजशेखर बोस खुद को ब्रिटिश सेना के चंगुल में ना आने देने के लिये अपने पास सायनाइड रखते थे और अंतिम समय तक भी ब्रिटिश सेना की पकड़ में नहीं आ सके।
16 मार्च 1880 को पश्चिम बंगाल के वर्धमान जिले में जन्मे राजशेखर अपनी माता पिता के छठवीं संतान थे। इनके पिता चंद्रशेखर बोस इनके जन्म के समय बिहार के दरभंगा जिले के राजपरिवार के दीवान थे और दरभंगा के महाराज लक्ष्मीश्वर सिंह जी ने ही इनका नाम राजशेखर रखा था। पर राजशेखर जी हमेशा अपने उपनाम परशुराम से ही जाने गये।
स्कूल के दिनों से ही राजशेखर को रसायन शास्त्र में लगाव था और अपने घर को ही लैब बनाकर घर में ही कैमिकल का निर्माण करने लगे।
इसके बाद जब ये बंगाल आये तो यहां भी यही स्थिति रही। बी एल की डिग्री अर्जित करने के बाद भी विज्ञान के लिए इनका जुनून बना रहा ।इसके बाद राजशेखर जी की मुलाकात बंगाल केमिकल के संस्थापक प्रफुल्ल चंद्र राय जी से हुई जिन्होंने इन्हें अपनी कंपनी में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया और कुछ ही समय में अपने समर्पण से ये बंगाल कैमिकल के प्रबंधक बने व क्रांतिकारियों को वित्त सहायता, कैमिकल्स और गन्स उपलब्ध कराने लगे
राजशेखर जी उत्कृष्ट लेखक और साहित्यकार भी थे। बंगाली भाषा को समृद्ध करने के लिये इन्होंने काफी कार्य किया। इनकी विद्वता को देखकर सिस्टर निवेदिता ने 1906 में राजशेखर बोस जी को राष्ट्रीय शिक्षा परिषद में शामिल होने का आमंत्रण भेजा।
1920 के दशक में राजशेखर जी ने साहित्य की दुनिया में कदम रखा व अपनी अनूठी लेखन शैली के लिए कहानियों पर आधारित इनकी पहली पुस्तक ‘गदालिका ‘ को खूब सराहा गया व 1931 में बंगाली शब्दकोश ‘चलंतिका’ के प्रकाशन ने उनकी साहित्यिक प्रतिष्ठा को और मजबूत किया। इस शब्दकोश के बाद ही बंगाली शब्द वर्तनी में अभूतपूर्व सुधार हुआ। साथ ही राजशेखर जी ने रामायण, महाभारत व गीता का भी बंगाली में अनुवाद कर बंगाली जनमानस के लिए इसे आसान भाषा में उपलब्ध कराया।
सुरेश चंद्र मजूमदार जी के साथ मिलकर राजशेखर जी ने ही पहले बंगाली लाइनोटाइप के निर्माण में योगदान दिया इस नवीन तकनीक से इनकी रचनाएं सबसे पहले मुद्रित हुई जो कि उस समय अपने आप में एक बड़ी उपलब्धि थी।
बंगाली फिल्मों पर भी राजशेखर जी का प्रभाव रहा है। बंगाली फिल्मों के मशहूर निर्देशक सत्यजीत रे ने भी राजशेखर जी द्वारा लिखी कई कहानियों को अपनी फिल्मों का विषय बनाया था जिनमें से प्रमुख थी पारस पत्थर, बिरिन्छ बाबा और चार।
अपने समय के राजनीतिक लोगों से भी राजशेखर जी के मधुर संबंध थे। राष्ट्रपति रहे राजेंद्र प्रसाद जी के बड़े भाई महेंद्र प्रसाद जी इनके बचपन के मित्र थे। वहीं रविन्द्र नाथ टैगोर जी भी राजशेखर बोस जी के परम मित्र थे जिन्होंने अपनी लिखी एक कविता तक राजशेखर बोस जी को समर्पित की थी । आचार्य जगदीश चन्द्र बोस, देशबंधु चितरंजन दास जी भी इनके काफी करीबी रहे थे। व डॉ गिरिन्द्र शेखर बोस जो एशियन साइक्लॉजी के पिता माने जाते हैं वह राजशेखर जी के छोटे भाई थे।
कह सकते हैं कि राजशेखर जी ने सही मायने में अपने समय में समाज के पुनर्जागरण का कार्य किया और इसलिए ही उन्हें बंगाली साहित्य का स्तंभ भी कहा गया। इनकी असंख्य उल्लेखनीय उपलब्धियों के लिए राजशेखर बोस जी का नाम हमेशा इतिहास के पन्नों में दर्ज रहेगा।