विनोद कुमार जोशी – रंगकर्मी और कला समीक्षक
जवाहर कला केंद्र,जयपुर में राजस्थान दिवस समारोह के रंगायन सभागार में अनिल मारवाड़ी लिखित और निर्देशित नाटक “सफ़ेद जवारा” का मंचन हुआ l राजस्थानी भाषा का असीम ऊर्जा से भरपूर नाटक दर्शकों को हंसाते हुए सामाजिक संदेश भी बख़ूबी दिया । रूढ़िवादी मान्यताओं के वशीभूत समाज का चित्रण नाटक के द्वारा किया गया ।





नाटक की शुरुआत पारंपरिक होली के रंग गीत से होती है
चुड़लो गढ़ा दूं थारे हाथों में,
पन रंग डालूं थारे माथे में,
कलाकारों के रंग डालने और मर्यादित छेड़छाड़ की नृत्य संरचना अच्छी रही । गुलशन कुमार चौधरी ने नृत्य को सजाया । वैसे राजस्थानी नृत्य में अपना खास मस्त अंदाज होता है जो अनायास ही थिरकने को मजबूर करवदेता है l होली के बाद दूसरे दिन से गणगौर की पूजा विवाहित और अविवाहित महिलाएं करती हैं l अपने पति की लंबी उम्र और कुंवारी कन्या अच्छा वर की प्राप्ति की कामना हेतु पूजा अर्चना करती है । नाटक में कोई सेट न होने के बावजूद कलाकारों ने चुन्नी का प्रयोग करते हुए , दृश्य अनुसार शारीरिक संरचनाओं से नाटक की लय बनाई ।
गणगौर पूजन के दौरान सभी महिलाएं सोलह दिन पूजा करती है तो गांव की एक नई बहु गौरी अपनी सास के साथ पूजा में आती है , पूर्ण रिवाज के अनुसार सभी महिलाएं मिटटी में जवारा बोती है जिसका अच्छे से उगना सुख ,समृद्धि का प्रतीक होता है । लेकिन सफ़ेद जवारा का उगना अच्छा नहीं माना जाता । अन्य महिलाओं से जवारा के अपशगुन की खबर सुनकर गौरी में मन में विचलन पैदा होती है तो वह बार बार जवारा के पौधों को देखने जाती है कि कहीं जवारा सफेद तो नहीं उग आया । उसकी सास उसे समझती भी है परन्तु वह भोली कहां मानने वाली थी । गौरी अपने पति को भी रात में जवारा देखने को कहती है । उसका पति बेचारा न चाहते हुए भी सब करता है क्योंकि गौरी उसे खरी खोटी सुनाकर कर बनावटी रोना रोकर ,भगवान से “मुझे उठा ले” कह कर प्रताड़ित करती है।
नाटक में एक राजा की शादी की कहानी का जिक्र तीन बार आता है , बरात के आने पर राजा के तिलक लगने के बाद कोई छींक मार देता है तो अपशगुन स्वरूप राजा की शादी नहीं हो पाती । एक छींक आना कार्य में बाधा का प्रतीक माना जाता है यह मान्यता अंधविश्वास की श्रेणी में रखी गई है हालांकि एक से ज़्यादा छींक आना शुभता का संचार भी करता है। बिल्ली का रास्ता काट जाना भी बहुत बड़े विघ्न का संकेत भी नाटक में दिखाया गया।
दूसरी तरफ गौरी की सास और पति उसकी नासमझी की वजह से परेशान है । । गौरी को सपने में भी सफेद होता जवारा दिखने लगता है तो गौरी को उसका पति जवारा को
नोचने का बोलता है जिससे जवारा बड़ा ही नहीं होगा l
गौरी की ऐसी हरकतों से उसकी सास उसे घर से बाहर ही नहीं जाने देती । अब तो गौरी को कुछ आवाज भी सुनाई देती है जो सफेद जवारा के रूप में भगवान की आवाज थी ।
परन्तु गौरी की बात पर कोई यकीन नहीं करता ।
एक दिन गौरी उस आवाज को सामने आने के लिए कहती है तो ध्वनि कहती है कि मैं तो यही हूं जिस रूप में सोचोगी मैं प्रकट हो जाऊंगा। वो आंख बंद करके आजमाने के लिए दशानन सोचती है तो सामने दस सिर दिखलाई देते हैं। पर वो डर जाती है और कहती नहीं ,कुछ और बनो , फिर वो हाथी, चमगादड़ आदि सोचती है तो क्रमशः वही दिखते है फिर अंत में सफेद कपड़ों में निर्मल शरीर में मनुष्य दिखता है । इस दृश्य की खास बात यह थी कि कलाकारों ने शारीरिक संरचनाओं से हुबहू दशानन, चमगादड़,और हाथी को जीवंत कर दिया । अद्भुत शारीरिक संरचना का सृजन भी रंगमंच का अभिन्न अंग माना जाता है जो कि कलाकारों ने किया भी l
सास की भूमिका में जयपुर की युवा रंगकर्मी रेनू सनाढ्य ने अपने अभिनय शैली से दर्शकों को हंसने पर मजबूर किया l गौरी और उसके पति का चरित्र भी दर्शकों को गुदगुदाने में सफल रहा । गौरी के रूप में कुसुम सोनी ने अपने अभिनय से दर्शकों को प्रभावित किया l अर्जुन देव ने अपने किरदार को जीवंत कर दिया एवं ऊर्जा बनाए रखी और ठेठ राजस्थानी संवाद के रस लिए l
नाटक के मध्य में स्क्रीन के माध्यम से राजपूतों की वीर गाथा का बखान सूत्रधार ने किया किन्तु इस दृश्य में संगीत का प्रभाव अधिक होने की वजह से संवाद दब गए l आशा है भविष्य की प्रस्तुतियों में सुधार होगा।
अनिल मारवाड़ी कई वर्षों से जयपुर रंगमंच को अपने ही अंदाज में संजोए हुए है उनका मायड़ भाषा में लिखा राजस्थानी नाटक अपनी बात कहने में बहुत ही सहज रहा l
चूंकि अपनी भाषा के संवाद दर्शकों को अपने से जुड़ाव महसूस करवाते हैं और फिर बीच बीच में कुछ अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग दृश्य को उम्दा बना रहे थे।
नाटक में अनुभवी रंगकर्मी मनोज स्वामी ने विभिन्न किरदार अच्छे से निभाए हालांकि सफेद जवारा के रूप में उनके कुछ संवादों में अटकन व उलझन प्रतीत हुई ।
प्रकाश व्यवस्था अच्छी रही । एक दो जगह स्पॉट समय पर नहीं आए l लोक गीत और सजीव संगीत नाटक का मुख्य आधार रहा l पार्श्व ध्वनि में सर्वेश व्यास और संजय पारीक जैसे सरीखे फनकारों ने शिरकत की ।
लगभग पच्चीस कलाकारों की टीम ने इस राजस्थानी प्रस्तुति में अपने अभिनय और विविध आयामों की छाप छोड़ी l
विश्व रंगमंच दिवस के अवसर पर जवाहर कला केंद्र की यह अद्भुत प्रस्तुति राजस्थान दिवस समारोह की परंपरा को सहेजना का भी संदेश देती है । मनुष्य को अंधविश्वास में न रहकर और अपने परिवार में सहयोग की भावना को जागृत करना चाहिए जिससे स्वस्थ समाज और देश का निर्माण जारी रहे।
नवल डांगी ने हारमोनियम पर शब्दों की ध्वनि का विस्तार बखूबी किया । अकबर खान और गोपाल खींची की तबला और नगाड़ा की संगत ने नाटक के लोक गीतों को श्रृंगारित कर दिया।सारंगी की कमान जाकिर हुसैन ने संभाली। रूप सज्जा के महारथी श्री राधेलाल बांका ने कलाकारों को सज्जित किया । रिकॉर्डेड संगीत में मधु भाट और सरदार खान की सुरीली ध्वनि का संचार रहा l
सभी कलाकारों ने नाटक में समरसता और तालमेल अच्छे से बनाए रखा और चेतन रहते हुए किरदारों को निभाया l अनिल मारवाड़ी जी को सफल प्रस्तुति की हार्दिक बधाई l जवाहर कला केंद्र, जयपुर को कला के क्षेत्र में निरंतरता बनाए रखने के लिए शुभकामनाएं l