आजादी के बाद यह पीढ़ी बहुत महत्वपूर्ण है-लेफ्टिनेंट कर्नल मनोज कुमार सिन्हा

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विजयलक्ष्मी जांगिड़ विजयाटीचर, एंकर, राइट

एक मनमौजी युवक जिसे न वर्तमान की कोई फ़िक्र थी न ही भविष्य की चिंता, न ही साधारण युवाओं जैसे सपने, उम्मीदें और क़वायदें थी, जिंदगी से कोई वादा भी नहीं था न ही कुछ बड़ा और अलग करने का इरादा ही था, फिर एक दिन यूँ हुआ कि बैठे बिठाये सेना में जाने के लिए पिता जी की इच्छा से प्रवेश परीक्षा दी और देखते ही देखते एयरफोर्स में नियुक्ति हो गयी। किसे पता था गॉंव की माटी का प्रेमी, ये गुदड़ी का लाल एक दिन इतिहास रचेगा और मौत के मुँह से अपनी साँसें खींच लाएगा।
युवाओं के लिए कर्नल मनोज कुमार सिन्हा की प्रेरणा दायक कहानी, माही संदेश के लिए विजयलक्ष्मी जांगिड़ विजया की प्रेरक व्यक्तित्व कर्नल मनोज कुमार सिन्हा से विशेष बातचीत।


अपने बचपन, शिक्षा और परवरिश के बारे में कुछ बताइये ?
कर्नल मनोज कुमार सिन्हा : मैं बिहार के छोटे से गाँव छपरा का रहने वाला हूँ। बचपन से ही जमीन से जुड़ा हुआ रहने के कारण गाँव का जीवन मुझे अपनी ओर खींचता था,पिता जी भी फौज में थे तो जगह–जगह ट्रांसफर होते रहते थे। हम अलग–अलग स्थानों पर उनके साथ जाते थे, मगर जबभी छुट्टियाँ होती तो गॉंव चले जाते।
मेरे लिए बचपन से ही, और आज भी छुट्टियों का मतलब गॉंव ही है।
बचपन के संस्कार कह लीजिये या फिर पिता जी का आदर्श जीवन गॉंव मेरी चेतना में शुरू से ही रहा है। आज जब गाँवों का बदला हुआ रूप देखता हूँ तो काफी दु:ख होता है, हमारे जीवन में जो एक चीज़ प्योर थी, सहज थी वो भी अब दिखावे, फैशन और सांस्कृतिक संक्रमण की भेंट चढ़ती जा रही है।
सेना में जाने की प्रेरणा कैसे मिली, सेना में आपके अनुभव कैसे रहे ?
कोई सोची समझी प्लानिंग नहीं थी, कोई ऐसा भावनात्मक विचार भी नहीं उमड़ता था कि सेना में जाकर देश सेवा करनी है। सच कहूँ तो मेरा इस दिशा में कोई चिंतन नहीं था। मगर कहते हैं कि कि़स्मत हमसे जो करवाना चाहती है उस रास्ते पर हमें स्वत: ही ले जाती है, कुछ ऐसा ही मेरे साथ भी हुआ।
12वीं पास की ही थी, किशोरावस्था में कदम कुछ लड़खड़ाये तो पिताजी ने निर्णय लिया। उस समय जहां मैं था पिताजी के साथ, वहाँ से निकलना आवश्यक था। उनके साथ वायु सेना में एक एयरमैन की भर्ती में गया और चुन लिया गया। उनका निर्णय बिल्कुल सही प्रमाणित हुआ। वहाँ से निकल कर ट्रेनिंग में पहुँचते ही मुझे सदबुद्धि आ गई, मैंने क्च्र किया एवं थल सेना में अधिकारी बन गया ।


किंतु जहाँ देश का प्रश्न था, तब तक कुछ बोध नहीं था, देश खुशहाल और सुरक्षित ही लगता था।
कहते हैं न जब तक शरीर में कोई परेशानी न हो हम डॉक्टर के पास नहीं जाते और जब डॉक्टर बताता है। तब हमें पता चलता है कि हट्टे कट्टे दिखने वाले शरीर में इतनी खतरनाक बीमारियां भी हो सकती हैं।
बॉर्डर पर ड्यूटी के समय चलते हुए मेरे एक साथी ने कहा ‘बस अब रुक जाओ हमारे देश की सीमाएँ खत्मÓ तो लगा किसने तय की ये सीमाएँ। आखिर क्या है ज़मीन पर खींची इस बारीक़ सी लकीर में, कि लोग कुर्बान हो जाते हैं इसकी अस्मिता पर ?
आतंकवादियों से कई बार बातचीत भी की, मुठभेड़ भी हुई।
मगर हमेशा यही लगता रहा कि क्यों देश सुरक्षित नहीं है? इन प्रत्यक्ष दुश्मनों से तो लड़ भी लेंगे मगर भीतर के गद्दारों से कौन मुठभेड़ करेगा? उनसे ज्यादा खतरा है देश को, यही सब बातें सोचता और बहुत गहराई से सोचता। तब जीवन का लक्ष्य समझ आया कि एक सैनिक ही नहीं एक युवा का अपने देश के लिए कर्तव्य बहुत बड़ा होता है? सैनिक का जीवन कोई ज्यादा दिखावा पसंद नहीं होता। एकदम साधारण और सुविधाओं के बिना जीने वाला होता है।
सैनिक और साधारण इंसान में यही फर्क होता है कि सैनिक के सामने सब कुछ बहुत स्पष्ट होता है, कोई कन्फ्यूजन नहीं होता, गलती की कोई गुंजाईश नहीं होती एक निर्णय, एक लक्ष्य, एक वार बस, छोटी सी गलती जिंदगी की कीमत माँगती है। साधारण युवक अपनी गलतियों को सुधार सकता है, उसे दूसरा अवसर मिल जाता है किन्तु बंदूक की नोक पर बैठा सैनिक गलती सुधारना तो दूर गलती कर भी नहीं सकता।
मैंने भी कुछ ग़लतियां की और उनका बहुत बड़ा नुकसान भी उठाया ईश्वर की इच्छा न होती तो आज में यहाँ आपसे बात न कर रहा होता।
हर सैनिक ये चाहता है युद्ध का मैदान ही उसकी अंतिम साँसों का गवाह बने। मेरी भी यही कामना थी मगर भगवान से हमेशा माँगता था कि अंतिम साँस लेने से पहले दुश्मन की आँखों में मेरे देश के प्रति जो नफरत है उसे ख़त्म होता हुआ देख सकूँ।
बात सन 2000 की है, कश्मीर में पोस्टिंग के दौरान आतंकवादियों के एक गाँव में छिपे होने की खबर पर हम लोग वहाँ पहुँचे तेज ़बारिश हो रही थी, आबादी वाला इलाका था तो हम रात को एनकाउंटर नहीं कर सकते थे। सुबह होने पर लोगों को वहाँ से हटने की रिक्वेस्ट करने के बाद ही कुछ कर सकते थे सो रात भर खड़े भीगते रहे।
सुबह हमारी मुठभेड़ शुरू हुई और इसी दौरान मैं एक ट्रम्प का शिकार बन गया।
मुझे एक तरफ से कोई आवाज़ सुनाई दी और मैं जब उधर चला तो सामने से दो आतंकवादी हमला करते हुए आगे बढ़ रहे थे। वो फिदाइन आत्महत्या के रोल में थे। वे जानते थे कि जिन्दा तो वापस जायेंगे नहीं सो मुझे मारने का टार्गेट लेकर चल रहे थे। उस समय भावुकता में मैंने लगातार गोलियां चलना जारी रखा और तभी सामने से एक दूसरे आतंकवादी ने मुझ पर हमला किया।
गोली सामने की तरफ से लेफ्ट जबड़े को चीरते हुए पीछे गर्दन से बाहर निकली , लगा जैसे किसी ने आधी गर्दन काट दी हो।
उस समय तो लगा कि गया मैं तो मगर बाद में साथियों ने बताया कुछ छह घंटे बाद मेरी फेमली, मेरे माता पिता और पत्नी, बच्चियों को इस घटना की जानकारी दी गयी थी। एक लम्बे किन्तु मानसिक रूप से थका देने वाले संघर्ष में उम्मीद की एक हल्की सी लौ थी जो लगातार जल रही थी और मृत्यु से हो रहे इस युद्ध को जीतने का विश्वास भर रही थी। मुश्किल वक्त था, मेरे साथियों ने कहा तुमने युद्ध जीत लिया।
बाद में एक कविता के रूप में इस अनुभव को लिखा,अपनी ही पंक्तियों में, सुनाता हूँ।
एक लड़ाई खत्म हुई दूसरी शुरू
वो लड़ाई शत्रु से थी, ये लड़ाई मृत्यु से है
वो लड़ाई सम्मान की थी
ये लड़ाई प्राण की है
एक लड़ाई खत्म हुई
दूसरी शुरू, लड़ाई वो भी थी
मुश्किल ये थोड़ी ज्यादा है।

मुझे सेना मैडल से सम्मानित किया गया फिर मेरी दूसरी पारी शुरू हुई।
खुद को मांजना और प्रतिभा को आगे बढ़ाना, शायद ये अवसर ही थे जिसने आपकी दूसरी पारी की शुरुआत बड़ी धुआँधार की, वर्तमान में आप किस तरह देश सेवा कर रहे हैं? एक सैनिक तो कभी खाली नहीं बैठ सकता?
विजया आप ठीक कहती हैं एक सैनिक कभी खाली नहीं बैठता। वास्तव में इस सफर में भी मुझे सेना ने बहुत सहयोग दिया।
जब मैं एयरफ़ोर्स में था तो एक सज्जन ऑफिसर थे, उन्होंने मुझे काफी प्रेरित किया, कहते थे मनोज तुम्हारे भीतर बहुत प्रतिभा है तुम आगे पढ़ो और कुछ अलग करो।
जब सेवानिवृति हुई तो मैंने सोचा, अब सीधे बॉर्डर पर दुश्मन से नहीं लड़ सकते। अब दूसरी तरह की लड़ाई लड़नी है, और वो है देश को भीतर से मजबूत बनाने के लिए लोगों की चेतना को झक झोरना, लोगों के बीच जाकर उन्हें बताना कि हमारे दुश्मन सीमा पर ही नहीं हमारे देश के भीतर भी हैं। इसलिए लेखन, साहित्य, टीवी शो, कॉमेंट्री इन सबके द्वारा अपने विचारों को लोगों तक, समाज तक, जनसाधारण तक पहुँचाने की कोशिश कर रहा हूँ। सेना ने मुझे बहुत अवसर दिए। ‘मैं हमेशा कहता हूँ सेना ने मुझे पेंशन ही नहीं पैशन भी दिया है।
कविता लिखने की रूचि जो थी उसे भी मुखर होने का मौका मिला चिंतन बहुत करता हूँ। उसमें मुझे सच्चाई समझ आ जाती है और उसे ही लिखता और बोलता हूँ।
मैं ये मानता हूँ कि सिनेमा एक बहुत ही सटीक और सशक्त माध्यम है जन चेतना के जागरण का। इन्वेस्टर्स की तलाश है, कोई हिम्मत दिखाए और साथ दे तो काफी अच्छी दो स्क्रिप्ट्स लिखी हैं मंैने उन पर फिल्म बनाई जा सकती है। एक आतंकवाद पर और दूसरी भारत के भीतरी दुश्मनों पर है।
कोरोना के समय में मेरे मन में ये विचार आया कि देश युद्ध लड़ रहा है तो मैं घर में कैसे बैठ सकता हूँ और महाराष्ट्र सरकार को मेलभेजा, रिक्वेस्ट की। तब सेवन हिल्स हॉस्पिटल को कोरोना ट्रीटमेंट के लिए तैयार किया गया और मैंने वहाँ का प्रबंधन संभाला। जब भी मौका लगता है जैसे भी हो देश सेवा के लिए अवसर मिल ही जाता है, ये मेरा सौभाग्य ही है।
आप युवाओं को क्या सन्देश देना चाहेंगे ?
युवाओं से यही कहना चाहूँगा कि आप लोग अपना रोल समझिये, देखिये की आपकी जिम्मेदारी क्या है? आप साधारण पीढ़ी नहीं है।
हर दो सौ चार सौ साल में एक कालखंड ऐसा आता है जब युवाशक्ति अपने दम पर इतिहास बदलती है या यूँ कहूं कि इतिहास रचती है। आज़ादी का संघर्ष करने वाली पीढ़ी के बाद आप सबसे महत्वपूर्ण पीढ़ी हैं जो देश को नया रूप, नई दिशा, नए आयाम देगी।
आप अपना समय और ऊर्जा को देश के लिए समर्पित कीजिये।
ये तो तय है, 2047 में भारत विकसित देश हो जायेगा लेकिन आज आपके द्वारा जो रोल निभाया जायेगा उस पर ही निर्भर करेगा नया और आधुनिक भारत।
लेकिन मैं मानता हूँ कि ये संघर्ष आजादी पाने के लिए किये गए संघर्ष से भी मुश्किल होगा।
जैसे एक धावक को पता होता कि सब अपने अपने खांचे में नियमों का पालन करते हुए दौड़ रहे हैं तो जो तेज़ और लंम्बा दौड़ेगा वो जीतेगा मगर देशों की दौड़ अलग हैं यहाँ कम्पीटीटर अलग तरह के हैं।
आपको तेज़ और लंबा तो दौड़ना ही है साथ ही सावधान और सचेत होकर भी दौड़ना है। अपनी ऊर्जा को बचा कर भी दौड़ना है और लगातार दौड़ना है, थकने और रुककर सुस्ताने की कोई गुंजाईश नहीं ।
हर युग में युवाओं ने अपनी शक्ति, ऊर्जा, क्षमता और प्रतिभा के बल पर अपने देश का इतिहास रचा है आपको भी सशक्त बनना है। अत: आज से ही, अभी से ही खुद को मजबूत और शक्तिपुंज बनाने में जुट जाइये।
सच में युद्ध के मैदान में लड़ने वाला जीवन के मैदान का भी मजबूत खिलाडी होता है।
लेफ्टिनेंट कर्नल मनोज से बात करके भी ऐसा ही महसूस हुआ। आपकी बहादुरी और देशप्रेम पर हमें गर्व है, सेना मैडल से हुए सम्मान के आप सच्चे अधिकारी हैं और हर एक युवा की प्रेरणा हैं।
मेरे रक्त की अंतिम बून्द
जहां गिरेगी
भारत होगा
जीवन में पल पल
स्पंदित, अंकुरित
भारत होगा
मिट जायेंगे लाखों पूत मुझसे
रिक्त न मगर
भारत होगा
देख न दुश्मन बुरी नज़र से
उन्नत, उद्धत
भारत होगा

जय हिन्द


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